Thursday, 26 July 2012

दाग़ देहलवी

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया

हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया

हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया

फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी
कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया

ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
कि दिल से शोर उठा, हाए! बेक़रार किया

तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां, कि ग़ैर कहते हैं
आख़िर कुछ न बनी, सब्र इख्तियार किया

भुला भुला के जताया है उनको राज़-ए-निहां
छिपा छिपा के मोहब्बत के आशकार किया

तुम्हें तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
ये क्या किया कि जहाँ के उम्मीदवार किया

ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मालन्देश
उन्हों ने वादा किया हम ने ऐतबार किया

न पूछ दिल की हक़ीकत मगर ये कहते हैं
वो बेक़रार रहे जिसने बेक़रार किया

कुछ आगे दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
कुछ आप ने मेरे कहने का ऐतबार किया

दाग़ देहलवी

अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का
याद आता है हमें हाय! ज़माना दिल का 

तुम भी मुँह चूम लो बेसाख़ता प्यार आ जाए 
मैं सुनाऊँ जो कभी दिल से फ़साना दिल का

पूरी मेंहदी भी लगानी नहीं आती अब तक
क्योंकर आया तुझे ग़ैरों से लगाना दिल का

इन हसीनों का लड़कपन ही रहे या अल्लाह 
होश आता है तो आता है सताना दिल का

मेरी आग़ोश से क्या ही वो तड़प कर निकले 
उनका जाना था इलाही के ये जाना दिल का

दे ख़ुदा और जगह सीना-ओ-पहलू के सिवा
के बुरे वक़्त में होजाए ठिकाना दिल का

उंगलियाँ तार-ए-गरीबाँ में उलझ जाती हैं 
सख़्त दुश्वार है हाथों से दबाना दिल का

बेदिली का जो कहा हाल तो फ़रमाते हैं
कर लिया तूने कहीं और ठिकाना दिल का

छोड़ कर उसको तेरी बज़्म से क्योंकर जाऊँ
एक जनाज़े का उठाना है उठाना दिल का

निगहा-ए-यार ने की ख़ाना ख़राबी ऎसी 
न ठिकाना है जिगर का न ठिकाना दिल का

बाद मुद्दत के ये ऎ दाग़ समझ में आया
वही दाना है कहा जिसने न माना दिल का

Daag dehlvi

अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता

न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता

ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती
न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता

तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
अगर अपनी जिन्दगी का हमें ऐतबार होता

Wednesday, 30 May 2012

Unknow

mere har amal ko nazar mein rakh meri chaahto ko sila na de
main chirag e aakhiri shab sahi mujhe berukhi ki hawa na de

mujhe dushmano se gila nahi sila doston se mila nahi
mujhe jitna jeena tha jee chuka mujhe zindagi ki dua na de

ye talaash ka bewafa safar mujhe tumse door tha
main laut ke aaonga yaad rakh tera shehar mujhko bhula na de

main bhala nahi to bura sahi tujhe mujse koi gila sahi
tera baat baat per roothna nayi raah mujhko dikha na de

Friday, 11 May 2012

दाग़ देहलवी

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब[1]तो आख़िर वो नाम किस का था

वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था

वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था

रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम[2] कौन हुआ है मुक़ाम किस का था

न पूछ-ताछ थी किसी की वहाँ न आवभगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतमाम[3] किस का था

हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था

इन्हीं सिफ़ात[4] से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था

तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़[5]
कहो वो तज़्किरा-ए-नातमाम [6]किसका था

गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था

अगर्चे देखने वाले तेरे हज़ारों थे
तबाह हाल बहुत ज़ेरे-बाम[7] किसका था

हर इक से कहते हैं क्या 'दाग़' बेवफ़ा निकला
ये पूछे इन से कोई वो ग़ुलाम किस का था

शब्दार्थ:

↑ दुश्मन
↑ निवासी
↑ प्रबन्ध
↑ गुणों
↑ उत्सुक
↑ अधूरा ज़िक्र
↑ साये के नीचे

दाग़ देहलवी

अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता

न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता

ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती
न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता

तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
अगर अपनी जिन्दगी का हमें ऐतबार होता

दाग़ देहलवी

ग़ज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया

हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया

हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया

फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी
कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया

ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
कि दिल से शोर उठा हाए! बेक़रार किया

तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां कि ग़ैर कहते हैं
आख़िर कुछ न बनी सब्र इख्तियार किया

भुला भुला के जताया है उनको राज़-ए-निहां
छिपा छिपा के मोहब्बत के आशकार किया

तुम्हें तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
ये क्या किया कि जहाँ के उम्मीदवार किया

ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मालन्देश
उन्हों ने वादा किया हम ने ऐतबार किया

न पूछ दिल की हक़ीकत मगर ये कहते हैं
वो बेक़रार रहे जिसने बेक़रार किया

कुछ आगे दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
कुछ आप ने मेरे कहने का ऐतबार किया

फ़िराक़ गोरखपुरी

रात भी, नींद भी, कहानी भी
हाय, क्या चीज़ है जवानी भी

एक पैगाम-ए-ज़िन्दगानी भी
आशिकी मर्गे-नागहानी भी

इस अदा का तेरी जवाब नहीं
मेहरबानी भी, सरगरानी भी

दिल को अपने भी गम थे दुनिया में
कुछ बलायें थी आसमानी भी

मंसबे-दिल खुशी लुटाता है
गमे-पिन्हान भी, पासबानी भी

दिल को शोलों से करती है सैराब
ज़िन्दगी आग भी है, पानी भी

शादकामों को ये नहीं तौफ़ीक़
दिले-गमगीं की शादमानी भी

लाख हुस्न-ए-यकीं से बढकर है
इन निगाहों की बदगुमानी भी

तंगना-ए-दिले-मलाल में है
देहर-ए-हस्ती की बेकरानी भी

इश्के-नाकाम की है परछाई
शादमानी भी, कामरानी भी

देख दिल के निगारखाने में
ज़ख्म-ए-पिन्हान की है निशानी भी

खल्क क्या क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूं मैं तेरी जुबानी भी

आये तारीक-ए-इश्क में सौ बार
मौत के दौर दरमियानी भी

अपनी मासूमियों के परदे में
हो गई वो नजर सयानी भी

दिन को सूरजमुखी है वो नौगुल
रात को वो है रातरानी भी

दिले-बदनाम तेरे बारे में
लोग कहते हैं इक कहानी भी

नज़्म करते कोई नयी दुनिया
कि ये दुनिया हुई पुरानी भी

दिल को आदाबे-बंदगी भी ना आये
कर गये लोग हुक्मरानी भी

जौरे-कम कम का शुक्रिया बस है
आप की इतनी मेहरबानी भी

दिल में एक हूक सी उठे ऐ दोस्त
याद आये तेरी जवानी भी

सर से पा तक सुपुर्दगी की अदा
एक अन्दाजे-तुर्कमानी भी

पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी, मेजबानी भी

जो ना अक्स-ए-जबीं-ए-नाज की है
दिल में इक नूर-ए-कहकशानी भी

ज़िन्दगी ऐन दीद-ए-यार ’फ़िराक़’
ज़िन्दगी हिज़्र की कहानी भी

मर्गे-नागहानी= अचानक मौत
सरगरानी=गुस्सा मन्सब=मन्सूबा
सैराब=भिगोना शादकाम=भाग्यवान लोग
तौफ़ीक=काबिलियत शादमानी=खुशी
तन्गामा-ए-दिले-मलाल=दुखी दिल के थोडे से हिस्से में
देहर-ए-हस्ती=ज़िन्दगी का समन्दर बेकरानी=असन्ख्य
कामरानी=सफ़लता निगारखाना=जहां बहुत लडकियां हों
पिन्हान=छुपा हुआ खल्क=दुनिया तारीके-इश्क=मोहब्बत का इतिहास
दौर=वक्त, समय दरमियानी=बीच में नौगुल=नया फ़ूल
नज़्म=नया बनाना जौर=कहर पा=पांव सुपुर्दगी=समर्पण
तुर्कमानी=विद्रोही अक्स-ए-जबीं-ए-नाज़=किसी प्यारे का चेहरा
नूर=प्रकाश कहकशां=आकाश गंगा ऐन= असलियत में

Thursday, 15 March 2012

सीमाब अकबराबादी

ग़म मुझे हसरत मुझे वहशत मुझे सौदा मुझे|
एक दिल देके ख़ुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे|
 
है हुसूल-ए-आरज़ू[1] का राज़[2] तर्क-ए-आरज़ू[3],
मैंने दुनिया छोड़ दी तो मिल गई दुनिया मुझे|


कह के सोया हूँ ये अपने इज़्तराब-ए-शौक़ से,
जब वो आयेँ क़ब्र पर फ़ौरन जगा देना मुझे|
 
सुबह तक क्या क्या तेरी उम्मीद ने ताने दिये,
आ गया था शाम-ए-ग़म एक नींद का झोंका मुझे|
 
ये नमाज़-ए-इश्क़ है कैसा अदब किसका अदब,
अपने पाय-ए-नमाज़ पर करने दो सज़दा मुझे|
 
देखते ही देखते दुनिया से मैं उठ जाऊँगा,
देखती की देखती रह जाएगी दुनिया मुझे|
 

शब्दार्थ:

↑ इच्छा-पूर्ति
↑ रहस्य
↑ इच्छा का त्याग

सीमाब अकबराबादी

शब-ए-ग़म ऐ मेरे अल्लाह बसर भी होगी|
रात ही रात रहेगी के सहर भी होगी|
[सहर=शाम]

मैं ये सुनता हूँ के वो दुनिया की ख़बर रखते हैं,
जो ये सच है तो उंहें मेरी ख़बर भी होगी|
 
चैन मिलने से है उन के न जुदा रहने से,
आख़िर ऐ इश्क़ किसी तरह बसर भी होगी|

 सीमाब अकबराबादी

नसीम-ए-सुबह गुलशन में गुलों से खेलती होगी| 
किसी की आख़िरी हिचकी किसी की दिल्लगी होगी| 
[नसीम=हवा] 

तुम्हें दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ, 
नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी|
[दानिस्ता=जान बूझ कर/क्नोविन्ग्ल्य] 

मज़ा आ जायेगा महशर में कुछ सुनने सुनाने का, 
ज़ुबाँ होगी हमारी और कहानी आप की होगी| 
[महशर=फैसले का दिन] 

सर-ए-महफ़िल बता दूँगा सर-ए-महशर दिख दूँगा, 
हमारे साथ तुम होगे ये दुनिया देखती होगी|
 
यही आलम रहा पर्दानशीनों का तो ज़ाहिर है, 
ख़ुदाई आप से होगी न हम से बंदगी होगी| 
[ज़ाहिर=प्रकट] 

त'अज्जुब क्या लगी जो आग ऐ 'सीमाब' सीने में,
हज़ारों दिल मे अँगारे भरे थे लग गई होगी|

Saturday, 11 February 2012

अकबर इलाहाबादी

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है

ना-तजुर्बाकारी से वाइज़[1] की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है

उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद[2] है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है

वां[3] दिल में कि दो सदमेयां[4] जी में कि सब सह लो
उन का भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है

हर ज़र्रा चमकता है अनवर-ए-इलाही[5] से
हर साँस ये कहती है कि हम हैं तो ख़ुदा भी है

सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत[6] के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है

शब्दार्थ:

↑ धर्मोपदेशक
↑ मनोरथ
↑ वहाँ

अकबर इलाहाबादी

कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है ।
यहाँ परियों का मजमा है वहाँ हूरों की महफ़िल है ।

इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं
हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है।

ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा
मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है मेरा दिल है ।

जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर
अरे तू कौन है हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है ।

हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया
लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है ।

अकबर इलाहाबादी

कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है ।
यहाँ परियों का मजमा है वहाँ हूरों की महफ़िल है ।

इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं
हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है।

ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा
मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है मेरा दिल है ।

जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर
अरे तू कौन है हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है ।

हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया
लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है ।

अकबर इलाहाबादी

कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
शाम को बोसा लिया था सुबह तक तक़रार की

ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की

हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार[1] की
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की

ज़हर देता है तो दे ज़ालिम मगर तसकीन[2] को
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की

बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों[3] ने गली में यार की

लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े
आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की

थूक दो ग़ुस्सा फिर ऐसा वक़्त आए या न आए
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की

हाल-ए-'अकबर' देख कर बोले बुरी है दोस्ती
ऐसे रुसवाई ऐसे रिन्द ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की

शब्दार्थ:

↑ ग़ैर
↑ तसल्ली
↑ दोस्तों

अकबर इलाहाबादी

ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते

आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल[1]
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़[2] है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माअ़ने
पंखा नफ़स-ए-सर्द[3] का झलने नहीं देते

शब्दार्थ:

↑ मिलन की रात

राहत इन्दौरी

तेरी हर बात मोहब्बत में गवारा करके
दिल के बाज़ार में बैठे हैँ ख़सारा[1] करके

एक चिन्गारी नज़र आई थी बस्ती मेँ उसे
वो अलग हट गया आँधी को इशारा करके

मुन्तज़िर[2] हूँ कि सितारों की ज़रा आँख लगे
चाँद को छत पे बुला लूँगा इशारा करके

मैं वो दरिया हूँ कि हर बूँद भंवर है जिसकी
तुमने अच्छा ही किया मुझसे किनारा करके

शब्दार्थ:

↑ हानि क्षति नुक्सान
↑ इंतज़ार करने वाला

राहत इन्दौरी

कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं
रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं

मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहाँ
थाम ले कोई मेरा हाथ मुझे होश नहीं

आँसुओं और शराबों में गुजारी है हयात
मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं

जाने क्या टूटा है पैमाना कि दिल है मेरा
बिखरे-बिखरे हैं खयालात मुझे होश नहीं

Rahat indori

उसकी कत्थई आँखों में हैं जंतर-मंतर सब
चाक़ू-वाक़ू छुरियाँ-वुरियाँ ख़ंजर-वंजर सब

जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे-रूठे हैं
चादर-वादर तकिया-वकिया बिस्तर-विस्तर सब

मुझसे बिछड़ कर वह भी कहाँ अब पहले जैसी है
फीके पड़ गए कपड़े-वपड़े ज़ेवर-वेवर सब

आखिर मै किस दिन डूबूँगा फ़िक्रें करते है
कश्ती-वश्ती दरिया-वरिया लंगर-वंगर सब