Saturday, 11 February 2012

अकबर इलाहाबादी

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है

ना-तजुर्बाकारी से वाइज़[1] की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है

उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद[2] है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है

वां[3] दिल में कि दो सदमेयां[4] जी में कि सब सह लो
उन का भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है

हर ज़र्रा चमकता है अनवर-ए-इलाही[5] से
हर साँस ये कहती है कि हम हैं तो ख़ुदा भी है

सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत[6] के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है

शब्दार्थ:

↑ धर्मोपदेशक
↑ मनोरथ
↑ वहाँ

No comments:

Post a Comment