Monday, 10 October 2011

दुष्यंत कुमार

परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं
हवा में सनसनी घोले हुए हैं 

तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो
तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं 

ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो
क़ुरान—ओ—उपनिषद् खोले हुए हैं 

मज़ारों से दुआएँ माँगते हो
अक़ीदे किस क़दर पोले हुए हैं 

हमारे हाथ तो काटे गए थे
हमारे पाँव भी छोले हुए हैं 

कभी किश्ती, कभी बतख़, कभी जल
सियासत के कई चोले हुए हैं 

हमारा क़द सिमट कर मिट गया है
हमारे पैरहन झोले हुए हैं 

चढ़ाता फिर रहा हूँ जो चढ़ावे
तुम्हारे नाम पर बोले हुए हैं

No comments:

Post a Comment