Sunday, 9 October 2011

Rahat indori

रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता है
चाँद पागल है अंधेरे में निकल पड़ता है

मैं समंदर हूँ कुल्हाड़ी से नही काट सकता
कोई फव्वारा नही हूँ जो उबल पड़ता है

कल वहाँ चाँद उगा करते थे हर आहट पर
अपने रास्ते में जो वीरान महल पड़ता है

ना त-आरूफ़ ना त-अल्लुक है मगर दिल अक्सर
नाम सुनता है तुम्हारा तो उछल पड़ता  है

उसकी याद आई है साँसों ज़रा धीरे चलो
धड़कनो से भी इबादत में खलल पड़ता है!

Rahat Indori

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